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Friday, December 16, 2022

जिले का लाल बिहार में कर रहा कमाल

सारण जनपद के कुमना गांव से मिले छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के मिट्टी के बर्तन।

अम्बेडकरनगर। सम्मनपुर थाना क्षेत्र के मछ्लीगांव निवासी इतिहासकार डॉ श्याम प्रकाश ने सन 2019 से विहार के इतिहासकार विभाग में अपनी सेवा देते हुए दो बार सम्मानित किए गए हैं जिसमें नौ गोल्ड मेडल प्राप्त कर चुके हैं। इनके इस सफलता से समूचे जनपद का नाम रोशन हो रहा है। लगभग तीन साल से विहार में रहकर नई नई खोज करते हुए इतिहास के बारे में जानकारी निकाल रहे हैं।

आइये हम जानते हैं सीधे डॉ श्याम प्रकाश जी से जनपद सारण में हुई खोज के बारे में-

अब तक ज्ञात सारण के इतिहास में मानव का पदार्पण नव पाषाण काल से माना जा सकता है जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण छपरा से लगभग 11 किमी. दूर डोरीगंज बाज़ार के समीप स्थित चिरांद से पुरातत्त्व वैज्ञानिकों को प्राप्त हुए हैं। सारण प्रमण्डल के धरातलीय सर्वेक्षण से प्राप्त पुरावशेषों एवं संस्कृतियों के माध्यम से सारण जनपद का पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक लेखन करने का कार्य जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा के इतिहास विभाग में अतिथि सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत पुरातत्त्व वैज्ञानिक एवं युवा इतिहासकार डॉ श्याम प्रकाश द्वारा किया जा रहा है। इस कड़ी में उनके द्वारा सारण के कई पुरातात्विक महत्व के स्थलों, मन्दिरों, मकबरों एवं खण्डहरों आदि का पुरातात्विक सर्वेक्षण कार्य किया जा चुका है। विगत कुछ दिन पहले डॉ श्याम प्रकाश की टीम में प्रभाकर कुमार एवं अंश कुमार द्वारा कुमना गांव में स्थित एक प्राचीन टीले के विषय में सूचना दी  गई। इसके पश्चात डॉ श्याम प्रकाश अपने पुरातात्विक सर्वेक्षण से सम्बंधित सामान के साथ पुरास्थल पर प्रभाकर कुमार, अंश कुमार एवं मुकेश कुमार 'गोलू' के साथ पहुंचे। 


      कुमना गांव में स्थित टीले का आकार लगभग गोल है। सामान्य धरातल से इसकी ऊँचाई लगभग 6 मी. है। वर्तमान में टीले को लगभग मध्य से काटकर एक पक्की सड़क का निर्माण किया गया है तथा टीले के अधिकांश भाग पर कृषि कार्य किया जा रहा है जिस कारण से टीला पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। टीले के कुछ ही दूर से एक नदी प्रवाहित हो रही है जो एन बी पी काल में टीले से सटकर बह रही होगी यह संभावना लगाई जा रही है।  जिससे इस काल के लोगों को जल सम्बन्धी समस्या का समाधान हो गया होगा। टीले पर एक आधुनिक मन्दिर निर्मित है जो घने वृक्षों से घिरा है। 

 यहां के धरातलीय सर्वेक्षण से लगभग चार सांस्कृतिक कालों की पुरा सामग्री प्राप्त होती है जिनमें मृदभांडों की प्रमुखता है। 

    प्रथम सांस्कृतिक काल- यहाँ के प्रथम काल का सम्बंध उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा वाली संस्कृति (एन बी पी डब्ल्यू) से सम्बद्ध जान पड़ता है। नमूना संग्रह के रूप में रुक्ष काले  रंग के मृदपात्रों का चयन किया गया है जो मोटे, मध्यम एवं पतले गढ़न में निर्मित हैं। प्राप्त मृद्पात्रों में कटोरे, थाली एवं आकर विहीन टुकड़ों की प्रधानता है। भारतीय इतिहास में इस काल को द्वितीय नगरीय संस्कृति का काल भी माना जाता है। यह वही समय है ज़ब दो महान व्यक्ति सुगत (सिद्धार्थ गौतम बुद्ध) तथा महावीर जैन का पदार्पण बिहार की धरती पर हुआ। इन दोनों ने इस क्षेत्र में पालि एवं पाकित भाषा में अपने-अपने धम्म मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। सम्भवतः तत्कालीन समय में इनके धम्म मार्ग का पालन करने वाले लोग इस पुरास्थल पर रह रहे हों अथवा उन्होंने ही यहाँ नदी के किनारे प्रथम आवास निर्मित किया हो।


इस विषय में विस्तृत सूचना प्राप्त करने के लिए इस पुरास्थल का पुरातात्विक उत्खनन कार्य अवश्यम्भावी है। स्थानीयों द्वारा बताए गए विचित्र प्रकार के बड़े आकार की ईंटों पर लिखे हुए लेख का सम्बंध मौर्य काल अर्थात मध्य एन बी पी काल से जोड़ा जा सकता है जो धम्म लिपि में उत्कीर्ण था। ऐतिहासिक तथ्य बताते है कि मौर्य कालीन प्रतापी शासक असोक के द्वारा लिखवाये गए अधिकांश लेख धम्म लिपि एवं पाकित भाषा में हैं। अतः बहुत संभव है कि इस पुरास्थल पर मध्य एन बी पी काल में यहाँ के लोगों के लिए सम्राट अशोक द्वारा कोई सूचना ईंटों पर लिखवाई गयी हो। यदि ऐसा है तो यह ईंटों पर लिखवाया गया एक मात्र मौर्य कालीन शासनादेश होगा। सर्वेक्षणकर्ता के अथक प्रयास के पश्चात भी वह अभिलिखित ईंट नहीं प्राप्त किया जा सका किन्तु ज़ब स्थानीयों को अशोक द्वारा स्तंभों पर लिखवाये गए धम्म लिपि के लेख को मोबाइल की सहायता से दिखलाया गया तो स्थानीयों ने इसी लिपि में लिखे होने की बात का समर्थन किया। 

द्वितीय सांस्कृतिक काल- यह शुंग-कुषाण काल से सम्बंधित है। इस काल के केवल लाल रंग के मृदभांड प्राप्त हुए हैं। प्राप्त मृद्पात्रों में हंडियां, रिम के नीचे अवतल कटान वाले कटोरे, गहरे कटोरे, फैलते मुंह वाले बड़े आकार के कटोरों की प्रधानता है जो मोटे, मध्यम एवं पतले गढ़न में निर्मित हैं।


कुषाण काल का सबसे प्रतापी शासक कनिष्क प्रथम था जिसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया था। सम्भवतः इसी आक्रमण के पश्चात इस पुरास्थल पर कुषाण कालीन मानवों का पदार्पण हुआ होगा। 

तृतीय सांस्कृतिक काल- तृतीय काल की पुरा सामग्री जिनमें लाल रंग के नाखून के आकार वाले अनेक गढ़न में निर्मित कटोरों की प्रधानता है, को गुप्तकालीन संस्कृति से समीकृत किया जा सकता है। पुरास्थल से एक मोल्डेड चटाई छापित चमकीले लाल रंग के मृद-पात्र खण्ड की प्राप्ति हुई जो संभवतः इसी काल से सम्बद्ध है।


गुप्त शासकों ने उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक राज़ किया किन्तु अब तक गुप्त राजाओं के भवन नहीं प्राप्त हुए हैं। अधिकांश विद्वान इनकी राजधानी के रूप में पाटलिपुत्र का चयन करते हैं। यह रोचक है कि पाटलिपुत्र आधुनिक पटना से मौर्य कालीन भवनों के साक्ष्य तो मिल गए किन्तु गुप्त काल के एक भी भवन नहीं प्राप्त हुए। बहुत सम्भव है कि जल्द ही पुरातत्त्व वैज्ञानिकों को गुप्तकालीन भवनों के साक्ष्य पाटलिपुत्र से प्राप्त हो सकेंगे। 

चतुर्थ सांस्कृतिक काल- इस पुरास्थल से प्राप्त अंतिम संस्कृति पूर्व मध्यकाल से सम्बंधित जान पड़ती है। इस काल के लाल रंग के मृदभांड मोटे, मध्यम एवं पतले गढ़न में निर्मित हैं। प्राप्त मृद्पात्रों में कटोरे, घड़े, हंडियां, कलश तथा संग्रह पात्र आदि का प्रमुखता से उल्लेख किया जा सकता है। पूर्व मध्यकाल में यह क्षेत्र बंगाल के पाल वंशीय राजाओं के अंतर्गत आता था।

पाल राज़ा बौद्ध धम्मानुयायी थे जिन्होंने विक्रमशिला, ओदान्तपुरी, जगदलपुरी जैसे बौद्ध महाविहारों अथवा विश्वविद्यालयों का निर्माण कार्य कराया। यहाँ से स्थानीयों को प्राप्त काले रंग के प्रस्तर पर निर्मित बुद्ध की मूर्ति संभवतः पाल काल से ही सम्बन्धित होगी। टीले पर स्थित एक आधुनिक मन्दिर में यह मूर्ति बहुत दिनों तक रखी हुई थी किन्तु कुछ समय पहले चोरों ने इस मूर्ति को चुरा लिया। कुछ स्थानीयों का मानना है कि यह बुद्ध मूर्ति अष्टधातु से निर्मित थी जो काफ़ी वजनी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि शायद सुल्तानगंज सरीखी कोई मूर्ति यहाँ रखी हुई थी जो अब चोरी हो चुकी है। 
शोधकर्ता टीम के साथ डॉ श्याम प्रकाश

   सम्पूर्ण अवलोकन के पश्चात यह कहा जा सकता है कि सारण की धरती पर मानवीय बस्तियों के बसावट का प्रारंभ नव पाषण काल में प्रारंभ हुआ जो उत्तरोत्तर बढ़ते हुए उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा (एन बी पी) से आगे चलकर शुंग-कुषाण, गुप्त, पूर्वमध्य, मध्य एवं आधुनिक काल तक चलता रहा है। यदि यहाँ के सबसे प्राचीन अर्थात प्रथम सांस्कृतिक काल की प्राचीनता की बात करें तो हम पाते हैं कि यह वर्तमान से लगभग 2022 ईसवी + 600 ईसा पूर्व = 2622 वर्ष प्राचीन है। अतः इसके पुरातात्विक महत्व को देखते हुए भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, पटना इकाई अथवा बिहार राज्य पुरातत्त्व विभाग, पटना को चाहिए कि इस पुरास्थल को तत्काल प्रभाव से संरक्षित कर लें अन्यथा की स्थिति में यह पूर्णतः नष्ट हो जाएगा। वैसे भी यह पुरास्थल अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद में लगा हुआ है। 

सारण से अभी और भी पुरातात्विक महत्व के स्थलों के प्राप्त होने की संभावना है जो विधिवत पुरातात्विक सर्वेक्षण से ही सम्भव है। इस सर्वेक्षण कार्य को सफल बनाने में जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा के इतिहास विभाग के इतिहासकारों  यथा विभागाध्यक्ष डॉ सैय्यद रज़ा, डॉ सुधीर कुमार सिंह, डॉ कृष्ण कन्हैया, डॉ राजेश कुमार नायक, डॉ रितेश्वर नाथ तिवारी, डॉ अभय कुमार सिंह, शोध छात्र अविनाश कुमार एवं राम जयपाल महाविद्यालय, छपरा के इतिहास विभाग के इतिहासकार डॉ इन्द्रकान्त का विशेष सहयोग एवं मार्गदर्शन सभी की सराहना की।

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